एन्टोमोथेरेपी यानि औषधीय कीटों और मकोड़ों से रोगों की चिकित्सा


एन्टोमोथेरेपी यानि औषधीय कीटों और मकोड़ों से रोगों की चिकित्सा
                                                                  - पंकज अवधिया 

छत्तीसगढ़ ने केवल अपनी जैव-विविधता बल्कि जड़ी-बूटियों से सम्बन्धित समृद्ध पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के लिए विश्व के मानचित्र पर विशिष्ट स्थान रखता है| पर यह बात बहुत कम लोग ही जानते है कि राज्य में औषधीय कीटों और मकोड़ों से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान का अकूत भंडार है| दुनिया के बहुत से देशों में कीड़े-मकौडों को खाया जाता है| नाना प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं| इसे विज्ञान की भाषा में एन्टोमोफैगी कहा जाता है| पर दुनिया के बहुत से कम भागों में कीड़े-मकौडों को बतौर औषधी प्रयोग किया जाता है| यदि आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ साहित्यों के दृष्टिकोण से देखे तो छत्तीसगढ़ का स्थान इसमें सबसे ऊपर है|  कीड़े-मकौडों के औषधीय प्रयोगों को  एन्टोमोथेरेपी कहा जाता है| 

तेजी से बढ़ती मानव आबादी और खाद्य संकट को देखते हुए भोजन के नये विकल्पों की तलाश पूरी दुनिया में हो रही है| पश्चिमी देश इन नये विकल्पों पर शोध के लिए पानी की तरह पैसे बहा रहे हैं| अमेरिका जैसे देश  एन्टोमोफैगी पर शोधरत दुनिया भर के जैव-विविधता विशेषज्ञों और पारम्परिक ज्ञान विशेषज्ञों को एक मंच पर लाने के प्रयास कर रहे है ताकि आने वाले वर्षों में व्यापक शोध के माध्यम से आम लोगों को एन्टोमोफैगी के लाभ से परिचित कर इसके प्रयोग को बढ़ावा दिया जा सके| 

छत्तीसगढ़ की पारम्परिक चिकित्सा में रानी कीड़ा का अहम स्थान है| मानसून की पहली बारिश का इन्तजार पारम्परिक चिकित्सकों को बड़ी बेसब्री से रहता है| अल सुबह ही वे खाली मैदानों की ओर निकल जाते हैं| उन्हें धरती पर मखमल की चादर की तरह बिखरे हुए असंख्य रानी कीड़े दिख जाते हैं| ये सुंदर कीड़े वास्तव में मकोड़े हैं| विज्ञान की भाषा में छै पैरों वाले जीवों को कीड़े और आठ पैर वाले जीवों को मकोड़े कहा जाता है| कीड़े के लिए इन्सेक्ट और मकोड़े के लिए माइट्स शब्द हैं| रानी कीड़ा देश भर में अलग-अलग नामो से जाना जाता है| भगवान की बुढिया, बीर बहूटी, राम का हाथी, रेन इन्सेक्ट, इंद्र गोप, लाल बिलौटी, आदि| इसका अंग्रेज़ी नाम रेड वेलवेट माईट है जबकि वैज्ञानिक नाम ट्राम्बिडियम है| धर्म वीर भारती जी के "सूरज का सातवाँ घोड़ा" में इसका जिक्र मिलता है| प्राचीन भारतीय चिकित्सा ग्रन्थ रानी कीड़े के बारे में विस्तार से जानकारी देते हैं| छत्तीसगढ़ में सैकड़ों पारम्परिक औषधीय मिश्रणों के अहम घटक के रूप में इसका प्रयोग किया जाता है| जानकार पारम्परिक चिकित्सक बड़ी मात्रा में साल में एक बार इन्हें एकत्र कर लेते हैं और फिर सुखाकर या ताजी अवस्था में ही औषधि के रूप में प्रयोग करते हैं| साल में एक बार इसलिए क्योंकि पहली मानसूनी वर्षा के बाद केवल कुछ ही दिनों के लिए ये मिट्टी से बाहर आते हैं| फिर साल भर ये नही मिलते हैं| 

रानी कीड़े का एकत्रण केवल पारम्परिक चिकित्सक ही नही करते हैं बल्कि वन वासी भी करते हैं व्यापारियों के लिए| न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में इसकी बहुत मांग हैं| चंद रुपयों के वनवासियों के खरीदे गए रानी कीड़े जब राष्ट्रीय बाजार में पहुचते हैं तो इनकी कीमत हजारों में हो जाती है| जिस वर्ष आकाल पड़ता है उस वर्ष ये कम संख्या पर धरती की साथ पर आते हैं जिससे इसकी मांग दो-तीन गुना हो जाती है| 

प्रोस्टेट ग्रन्थी की बीमारी से लेकर पक्षाघात और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने के लिए रानी कीड़े का प्रयोग होता है पर रानी कीड़े के  जिस गुण ने इसे विश्व स्तर पर लोकप्रिय बनाया है वह इसकी  मर्दाना शक्ति बढाने की अद्भुत क्षमता है| अपनी यौनिक शक्ति खो बैठे रोगियों के लिए पारम्परिक चिकित्सक इसे वरदान मानते हैं| रानी कीड़े का प्रयोग बाहरी और आंतरिक दोनों ही रूपों में होता है| पारम्परिक चिकित्सक इसके सीधे सेवन की सलाह देते हैं| इसका सीधा उपयोग सभी के बस की बात नही है इसलिए पान के रूप में इसे दिया जाता है और दूसरी सामग्रियों के साथ पान में इसे भी डाल दिया जाता है ताकि रोगी को इस बारे में कोई जानकारी न हो| रानी कीड़े की तासीर गर्म होती है और वह कम समय में ही अपना असर दिखाना आरम्भ कर देता हैं| ग्रामीण अंचलों में काम शक्ति के लिए इसका प्रयोग कई रूपों में प्रचलित है पर पारम्परिक चिकित्सक सम्भलकर रोगी की जीवनी शक्ति के आधार पर इसका प्रयोग करते हैं| छत्तीसगढ़ में वनवासियों द्वारा एकत्र किये गये रानी कीड़े को स्थानीय व्यापारी खरीद लेते हैं और फिर इन्हें सुखाकर सीधे ही उत्तर भारत भेज दिया जाता है जहां इससे तेल बनाया जाता है| यह तेल पक्षाघात के रोगियों के लिए बहुत लाभप्रद है पर काम शक्ति के लिए इसका प्रयोग अधिक किया जाता है| दुनिया भर में छत्तीसगढ़ से एकत्र किया गया यह मकौड़ा ही औषधीय गुणों से समृद्ध माना जाता है| इससे राज्य में इसकी प्राकृतिक आबादी पर विशेष तौर पर दबाव पड़ता है| 

दुनिया भर में रानी कीड़े की बढती मांग अब इसके अस्तित्त्व के लिए खतरा बनती जा रही है| लेखक पिछले बीस वर्षों से इसके विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से शोध कर रहे हैं| रानी कीड़ा एक बहुत ही निर्भीक मकोड़ा है| दिन के समय जब दूसरे कीड़े आड़ में जाना पसंद करते हैं उस समय भी इसे खुले आसमान के नीचे देखा जा सकता है| इसकी इसी दिलेरी के कारण यह सबको नजर आ जाता है| जलवायु परिवर्तन का प्रभाव इस पर स्पष्ट देखा जा सकता है| बदलते मौसम विशेषकर वर्षा की देरी और अनियमितता के कारण इनके सतह पर आने का समय बदल रहा है| जंगलों की अंधाधुंध कटाई इसके प्राकृतिक आवासों को समाप्त कर रही है| दुनिया भर में इसकी बढती मांग को देखते हुए इसकी आबादी पर पड़ रहे विपरीत प्रभाव को कम करने के लिए बहुत से ऐसे प्रयोग प्रगति पर हैं जिनकी सहायता से इन्हें प्रयोगशाला परिस्थितियों में बढाया जा सके| यह आसान काम नही है क्योंकि महीनों तक ये जमीन के अंदर सुषुप्तावस्था में पड़े रहते हैं| इसकी घटती संख्या से पारम्परिक चिकित्सक भी चिन्तित है| वे कहते हैं कि काम शक्ति के लिए तो जड़ी-बूटियाँ कारगर है| कई मायनों में रानी कीड़े से अधिक फिर क्यों बड़ी संख्या में रानी कीड़े का एकत्रण किया जाए? विशेष रोगों के लिए दूसरी जड़ी-बूटियों के साथ आवश्यकतानुसार कम मात्रा में इसका एकत्रण किया जाना चाहिए| वे दो साल में एक बार इसका एकत्रण करते हैं और एक स्थान से एकत्रण की बजाय साल दर साल दिशा बदलते रहते हैं| 

आधुनिक चिकित्सकीय सुविधाओं के दूर जब पारम्परिक चिकित्सक जटिल रोगियों की चिकित्सा करते हैं तो रोगों की सही पहचान के लिए वे पारम्परिक विधियों का सहारा लेते हैं| मधुमेह के रोगी जब उनके पास आते हैं तो वे कई प्रकार के परीक्षण करते हैं| चापरा या माटरा नामक लाल चीटियों से कटवाना भी उनमे से एक है| वैज्ञानिक भाषा में ओइकोफिला नाम से पहचानी जाने वाली लाल चीटी पेड़ों पर पत्तियों की सहायता से घोसला बनाकर रहती हैं इसलिए इसे वीवर आंट भी कहा जाता है | इन आश्रय स्थलों को थोड़ा भी नुकसान पहुँचने से वे शत्रु पर टूट पडती हैं| इससे असह्य पीड़ा होती है| यही कारण है आम लोग इससे दूरी बनाये रखना पसंद करते हैं| पश्चिमी देश आम लोग इसे दुश्मन कीट मानते हैं और इसके नियंत्रण के उपायों की खोज में कीट वैज्ञानिक शोध करते हैं| छत्तीसगढ़ के बस्तर में इसे बड़े चाव से खाया जाता है| चटनी के रूप में इसका प्रयोग लोकप्रिय है| जानकार पारम्परिक चिकित्सक दावा करते हैं कि इसका साल में एक बार प्रयोग साल भर वात रोगों से मुक्त रखता है| वनवासी स्वाद के लिए इसे खाते हैं| मलेरिया ज्वर की चिकित्सा करने वाले बहुत से पारम्परिक चिकित्सक रोगी के ऊपर इस कीट को छोड़ देते हैं| दंश से कुछ ही समय में ज्वर जाता रहता है| ज्वर उतरने के बाद इस चीटी का काढ़ा बनाकर उससे रोगियों को स्नान कराया जाता है| रोगी को चीटी के काटने से कम पीड़ा हो इसलिए भूईं नीम जैसी जड़ी-बूटियों का काढ़ा पिला दिया जाता है| 

छत्तीसगढ़ के मैदानी भाग के पारम्परिक चिकित्सक आम और कुक्कुर जाम के वृक्षों से इन्हें एकत्र कर लेते हैं और फिर सूखी हुयी अनस्था में साल भर विभिन्न जड़ी-बूटियों के साथ मिलाकर इसका प्रयोग करते हैं| वे महारोगों की चिकित्सा में इसे प्रकृति का अनुपम उपहार मानते हैं| भारत के अलावा थाईलैंड ऐसा देश है जहां इस चीटी के औषधीय गुणों पर विस्तार से अनुसन्धान हो रहे हैं पर वे भी छत्तीसगढ़ के पारम्परिक ज्ञान से अभिभूत हैं| अमेरिकी सैन्य विशेषज्ञ इसे आपातकालीन औषधि के रूप में देखते हैं| छत्तीसगढ़ के पारम्परिक चिकित्सक माटरा पर आधारित पारम्परिक औषधीय मिश्रणों का प्रयोग पीढीयों से इस कार्य के लिए कर रहे हैं| उनका दावा है कि विपरीत परिस्थितयों में इसका साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को विशेष रूप से बढ़ा देता है|  कलमी नामक वनस्पति के साथ इसका प्रयोग बवासीर में, अनंत मूल के साथ जलोदर में, साल के साथ त्वचा रोगों में, काली मूसली के साथ हार्निया में, कडु कंद के साथ किडनी रोगों में किया जाता है|     

अरुणाचल प्रदेश में न्याशी और गालो जन जाति के लोग काली चीटी (बोथ्रोपोनेरा) का प्रयोग औषधी के रूप में करते हैं| वे काली चीटियों को उबालकर काढ़ा बनाते है और फिर दांत दर्द होने पर इस काढ़े से कुल्ला किया जाता है| इन जन जातियों के पारम्परिक चिकित्सक दावा करते हैं कि प्रतिदिन १-२ काली चीटियों का सेवन रक्त चाप को नियंत्रित रखता है| पशुओं को होने वाले खुरपका मुंह पका रोग में काली चीटियों के काढ़े का प्रयोग बाहरी तौर पर किया जाता है| ये प्रयोग नई पीढी के पारम्परिक चिकित्सकों में भी लोकप्रिय हैं| अरुणाचल के पारम्परिक चिकित्सक नाना प्रकार के जंगली टिड्डों का प्रयोग भोजन के रूप में करते हैं| औषधीय मिश्रणों में भी इनका प्रयोग किया जाता है| इनकी लोकप्रियता कम है क्योंकि सभी को ये टिड्डे लाभ नही पहुंचाते है और लोगों को इनसे एलर्जी भी हो जाती हैं| अरुणाचल में सौ से अधिक प्रकार के औषधीय कीटों के विषय में पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया जा चुका है| 

छत्तीसगढ़ के वनीय अंचलों में पीढीयों से पारम्परिक चिकित्सकों के बीच यह परम्परा रही है कि वे अपने चिकित्सकीय ज्ञान के आधार पर नव-विवाहितों के लिए उपहार देते हैं| ये उपहार आस-पास के जंगलों से एकत्र किये जाते थे और नव-विवाहितों के स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से उपयोगी होते थे| इन विवाहितों में कंद-मूलों के अलावा दीमक की रानी भी होती थी| वही दीमक जिसकी विनाशकारी ताकतों से सभी हलाकान है| दीमक की रानी बड़ी मात्रा में अंडे देती है और कीट विशेषज्ञ मानते हैं कि दीमको के पूर्ण नियंत्रण के लिए यह जरूरी है कि रानी को नष्ट किया जाए| शहरी घरों में दीमक को मारने के जो प्रपंच किये जाते हैं उससे रानी का बाल भी बांका नही होता है| यही कारण है कि  दीमक की समस्या हमेशा बनी रहती है और नियंत्रण करने वाली संस्थाओं को काम मिलता रहता है| पारम्परिक चिकित्सक जब दीमक की रानी का एकत्रण करते थे तो अप्रत्यक्ष रूप से वे दीमक की संख्या पर अंकुश लगाने का काम करते थे| दीमको के लिए रानी बहुत महत्वपूर्ण होती है इसलिए वे उसे काफी गहराई में विशेष सुरक्षा में रखते हैं| दीमक की रानी को एकत्र करना टेढ़ी खीर है| जब प्रोटीन से भरी रानी उनके हाथ आ जाती तो सारी मेहनत वसूल हो जाती थी| कमजोर और कम जीवनी शक्ति वाले रोगियों के लिए यह रानी किसी वरदान से कम नही है| रानी पर आधारित बहुत से व्यंजन वनीय अंचलो में मिलते हैं| इन व्यंजनों में रानी की झलक साफ़ दिखती है| कुछ ऐसे भी व्यंजन है जिनमे रानी की पहचान छुपाई जाती है ताकि रोगी बिना किसी भाव से उसे खा  सके| आधुनिक शोधों से अब यह प्रमाणित हो चुका है कि दीमक की रानी नव-विवाहितों के लिए शक्ति की अनुपम स्त्रोत है| 

दीमक को छत्तीसगढ़ में दीयार कहा जाता है और इसके घर को बाम्बी या भिम्भौरा| दीमक की बाम्बी की मिट्टी को कुंवारी मिट्टी कहा जाता है| बहुत से जटिल रोगों की चिकित्सा में इसका बाहरी और आंतरिक प्रयोग किया जाता है| मनुष्यों और पशुओं दोनों ही के नासूर में इसका बाहरी प्रयोग पारम्परिक चिकित्सकों के बीच लोकप्रिय है| दीमक की बाम्बी में विशेष प्रकार के कुकुरमुत्ते उगते हैं| इन कुकुरमुत्तों से भी औषधीयाँ तैयार की जाती हैं| सेन्हा नामक जंगली वृक्ष के पास स्थित बाम्बी पर उग रहे पीले रंग के कुकुरमुत्तों का प्रयोग पारम्परिक चिकित्सक किडनी रोगों में करते हैं| 

दीमक की बाम्बी को भूमिगत जल का स्त्रोत बताने वाला जैव-सूचक पाया गया| यह भारत का पारम्परिक ज्ञान है जिसे आधुनिक विज्ञान की कसौटी में जब कसा गया तो यह खरा निकला| बाम्बी के साथ अर्जुन नामक वृक्ष की उपस्थिति को कभी न चुकने वाले जल स्त्रोत का क्षेत्र माना जाता है| छत्तीसगढ़ के भुंजिया वनवासी दीमक और इसकी बाम्बी के औषधीय गुणों के विषय में गहरा ज्ञान रखते हैं| 

भले ही यह सुनने में अटपटा लगे पर रोगों की घर समझी जाने वाली मख्खी भी औषधीय कीट के रूप में जानी जाती हैं| चिकित्सा से सम्बन्धित भारतीय ग्रन्थ सिर के बालों को काला करने के लिए मख्खी के तेल के प्रयोग का सुझाव देते हैं| सौ मक्खियों को तिल या सरसों के तेल में रखकर पात्र को चालीस दिनों के लिए धूप में रखा जाता है और फिर तेल को छानकर बाहरी तौर पर प्रयोग किया जाता है| यह प्रयोग केवल ग्रंथो तक ही सीमित नही है| देश के विभिन्न भागों के पारम्परिक चिकित्सक इसका आज भी प्रयोग करते हैं| वे इसके प्रभावीपन को बढाने के लिए मक्खियों के साथ जड़ी-बूटियाँ भी मिला देते हैं| पारम्परिक चिकित्सकों के बीच इस तेल की लोकप्रियता इसके प्रभावीपन को सिद्ध करती जान पडती है| 

प्राचीन ग्रन्थ मक्खियों के विष्ठा के प्रयोग का वर्णन भी करते हैं| वमन रोग की चिकित्सा में इसका प्रयोग गुड के साथ किया जाता है| गुड का प्रयोग औषधी को छुपाने के लिए किया जाता है| मक्खियों पर आधारित पारम्परिक औषधीय मिश्रणों के बारे में "फारगाट्न ऐन्टोमोथेरेपी फार्मुलेशन्स आफ छत्तीसगढ़" नामक वैज्ञानिक रपट में विस्तार से जानकारी दी गयी है जो कि इंटरनेट पर उपलब्ध है| ये वे नुस्खे है जो अब प्रयोग में नही है| पर अकादमिक दृष्टिकोण से अभी भी उतने ही महत्वपूर्ण है| मख्खियों पर आधारित इन पारम्परिक नुस्खों में सुधार की जबर्दस्त गुंजाइश है| इन सुधारों के माध्यम से इन्हें फिर से मुख्यधारा में लाकर नई पीढी के पारम्परिक चिकित्सकों को सौंपा जा सकता है| 

छत्तीसगढ़ के गरियाबंद के पारम्परिक चिकित्सक कुछ दशक पहले तक घरेलू मक्खियों का प्रयोग करते थे पर मक्खियों द्वारा फैलाए जाने वाले रोगों के विषय में जागरूकता बढ़ने पर वे एक अन्य प्रकार की जंगली मख्खी जिसे स्थानीय भाषा में लोकटी कहा जाता है का प्रयोग करने लगे| वे कहते हैं कि यह शहरी गन्दगी में नही रहती है और औषधीय वृक्षों के बीच जंगल में रहती है| अत: इसका प्रयोग सुरक्षित है| यह वही मख्खी है जिससे परेशान होकर जंगल के राजा तक को दिन में अँधेरे स्थान में शरण लेनी पडती है| घरेलू मख्खी से जंगली मख्खी लोकटी तक जाना पारम्परिक चिकित्सकों के लिए आसान नही रहा| इसकी उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी| उनके नुस्खों का प्रभाव कम हो गया और उन्हें नई जड़ी-बूटियाँ मिलानी पड़ी| 

मख्खी का औषधीय प्रयोग भारत तक ही सीमित नही है| जर्मनी की होम्योपैथी चिकित्सा में मस्का नेबुलो नामक औषधी मख्खी से ही तैयार की जाती है| बाजार में इसे लेते वक्त बहुत कम ही लोग यह जानते होंगे कि चिकित्सक ने जिस दवा का अनुमोदन किया है वह मक्खी से तैयार की गयी है| पुराने ज्वर की चिकित्सा में काली मिर्च और हींग के साथ मक्खी का प्रयोग छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग के पारम्परिक चिकित्सक करते हैं|    

"यदि कोई दमे के दौरे से परेशान हो और हालत मरणासन्न हो रही हो तो बाथरूम से कुछ ब्लाट्टा पकड ले और फिर उसे साफ़ करके गर्म चाय की केतली कुछ पलों के लिए डाल दे| इसके बाद ब्लाट्टा को हटाकर चाय रोगी को पीने को दे| तुरंत ही दमा का रोगी आराम महसूस करेगा|" कुछ ऐसे ही शब्दों में ब्लाट्टा के औषधीय गुणों का बखान होम्योपैथी के प्रतिष्ठित ग्रंथो में मिलता है| ब्लाट्टा से तैयार होने वाली होम्योपैथिक दवा दुनिया भर के बाजारों में न केवल मिलती है बल्कि दमा के लिए प्रयोग भी की जाती है| ब्लाट्टा अमेरिकी काकरोच का वैज्ञानिक नाम है| वही तिलचट्टा जिसे देखते ही हम आप नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं| वही तिलचट्टा जो अमेरिका से खाद्य सामग्री के साथ पूरी दुनिया में फ़ैल गया और हमारी रसोई को स्थायी आवास बना लिया| वही तिलचट्टा जिसके बारे शोधकर्ता दावा करते हैं कि परमाणु युद्ध की दशा में भी यह जीवित रहेगा| वही तिलचट्टा जिसके सामने सारे कीट नाशक  बेबस साबित होते हैं| 

तिलचट्टा का यह कारगर प्रयोग जब औषधीय कीटों के उपयोग में दक्ष पारम्परिक चिकित्सकों के सामने रखा गया तो उन्होंने इसमें अधिक रूचि नही दिखाई| वे जड़ी-बूटी के माध्यम से इस महारोग का प्रबन्धन सफलतापूर्वक कर लेते हैं| होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति में दूसरे रोगों के लिए भी तिलचट्टा से बनी दवा का प्रयोग किया जाता है| 

होम्योपैथी की एक और दवा साइमेक्स अक्सर प्रयोग की जाती है| साइमेक्स का प्रयोग ज्वर की चिकित्सा में होता है| ऐसा ज्वर जिसमे जोड़ों में भयंकर दर्द हो और रोगी को ऐसा महसूस हो कि मांस पेशियों के तन्तु छोटे पड़ रहे हैं| साइमेक्स का प्रयोग इसी मर्ज के लिए छत्तीसगढ़ के पारम्परिक चिकित्सक भी करते हैं| वे रोगियों को दवा के रूप में एक केला खाने को कहते हैं| जब रोगी को राहत मिलती है तो उसे लगता है कि केले ने उपचार में मुख्य भूमिका निभाई है पर वास्तविक भूमिका तो साइमेक्स की होती है जिसे केले के गूदे के अंदर छिपाकर रोगियों को दिया जाता है| होम्योपैथ अल्कोहल में तैयार दवा के रूप में साइमेक्स को देते हैं जबकि पारम्परिक चिकित्सक ज़िंदा ही इसे केले में डाल देते हैं| उन्हें इसकी खोज में ज्यादा दूर नही जाना पड़ता है| साइमेक्स यानी खटमल हमारे बिस्तरों में होते हैं और रात को जब हम गहरी नींद में होते हैं तो वे खून चूसते हैं| देश-विदेश की बहुत सी चिकित्सा  पद्धतियों में साइमेक्स का प्रयोग औषधी के रूप में किया जाता है| 

साइमेक्स का मूत्र रोगों में प्रयोग पारम्परिक चिकित्सकों के बीच लोकप्रिय है| यह रुकी हुयी पेशाब को खोल देता है| मूत्र द्वार से साइमेक्स की अल्प मात्रा शरीर के भीतर पहुचाई जाती है| बाहरी तौर पर खूनी बवासीर पर रक्त को रोकने के लिए इसका लेप लगाया जाता है|      

केले या गुड में छिपाकर भंवरी नामक कीड़े का प्रयोग छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों के पारम्परिक चिकित्सक करते हैं| भंवरी यानि वाटर स्ट्राइडर वही कीड़ा जिसे आप स्थिर पानी में गोल-गोल चक्कर लगाते देखते हैं| ग्रामीण बच्चों को यह बहुत आकर्षित करता है और वे इसे पनडुब्बी का नाम भी दे देते हैं| पारम्परिक चिकित्सक मृगी के उपचार के लिए इसका प्रयोग करते हैं| वे जानते हैं कि इसका इलाज दुष्कर कार्य है| वे रोग प्रबन्धन पर अधिक ध्यान देते हैं फिर उसके बाद रोगोपचार के प्रयास किये जाते हैं| मृगी या अपस्मार की चिकित्सा में केवल इस कीट का प्रयोग पारम्परिक चिकित्सक करते हैं| जब रोगी को लाभ होने लगता है तब इसके साथ जड़ी-बूटियाँ मिलाई जाती है ताकि नुस्खे को और अधिक प्रभावी बनाया जा सके| भंवरी से मृगी की चिकित्सा करने वाले गिने-चुने पारम्परिक चिकित्सक हैं और उनमे से बहुत कम अपने इस पारम्परिक ज्ञान के विषय में जानकारी देना चाहते हैं| वे हमेशा रोगियों की कभी न खत्म होने वाली भीड़ से घिरे रहते हैं और सारा समय उनकी सेवा में लगाने के बाद भी पारम्परिक शपथ को निभाते हुये एक भी पैसे नही लेते हैं| 

प्रतिवर्ष फसलों पर असंख्य कीटों का आक्रमण होता है| इससे किसानो को बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है| कृषि वैज्ञानिक विभिन्न विधियों को सुझाने का बीड़ा उठाते है| अंतत: रासायनिक नियंत्रण की जरुरत आ पडती है| जहरीले रसायन कीटों को तो मार देते हैं पर फसल को भी विषाक्त बना देते हैं| किसान सब कुछ जानते हुए भी और कोई विकल्प न होने के कारण रासायनिक नियंत्रण से परहेज नही कर पाते हैं| औषधीय कीटों पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों को इस ज्वलंत समस्या का भान है| वे फसलों को नुक्सान पहुंचाने वाले कीटों के उपयोग ढूढने के प्रयास कर रहे हैं| वे इन कीटों के औषधी के रूप में प्रयोग की सम्भावना पर भी नजर रखे हुए हैं| यद्यपि यह दूर की कौड़ी नजर आती है पर उनकी परिकल्पना है कि यदि व्यवसायिक स्तर पर इन हानिकारक कीटों के लाभप्रद प्रयोग विकसित कर लिए जाए तो हो सकता है किसान फसलों पर इसे देख दुखी होने की बजाय खुश हो और इन्हें आय के अतिरिक्त स्त्रोत के रूप में देखे| 

छत्तीसगढ़ के पारम्परिक चिकित्सक ऐसी परिकल्पना करने वाले वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करते दिखते हैं| चने की फसल की घातक दुश्मन हरी इल्ली से लेकर धान के माहो कीट तक के औषधीय उपयोगो के विषय में वे जानकारी रखते हैं| ये कीट उनकी पारम्परिक चिकित्सा के अहम घटक हैं| उनके पारम्परिक ज्ञान को वैज्ञानिक दस्तावेज के रूप में जब अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित किया गया तो विश्व वैज्ञानिक समुदाय ने घोर आश्चर्य और प्रसन्नता का प्रदर्शन किया विशेषकर चने की इल्ली के उपयोगों को जानकार| चने की इल्ली न केवल चने बल्कि कपास जैसी आर्थिक महत्त्व की बहुत सी फसलों को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाती है| इससे निपटने के लिए वैज्ञानिकों को बीटी काटन का विकास करना पडा जो भारी विरोध के बाद किसानो के सामने प्रस्तुत  की गयी और फिर जमीनी स्तर पर पूरी तरह से असफल रही|    

चने की इल्ली का प्रयोग सुखा कर अश्वगंधा, शतावरी और सफेद मूसली जैसी जड़ी-बूटियों के साथ किया जाता है| पारम्परिक चिकित्सक इसे शक्तिवर्धक मानते हैं और तंत्रिका तंत्र के रोगों के लिए उत्तम मानते हैं| कही भी चोट लगाने पर बहते हुए रक्त को रोकने के लिए भी इल्ली का प्रयोग किया जाता है| इल्ली को सीधे ही चोट वाले स्थान पर लेप के रूप में लगा दिया जाता है| चने की इल्ली का प्रयोग सनाय नामक जड़ी-बूटी के साथ रेचक के रूप में कब्ज रोग के इलाज के लिए किया जाता है| पारम्परिक चिकित्सक दावा करते हैं कि इल्ली का चूर्ण स्नाय के प्रभावीपन   को बढा देता है| चने की इल्ली जब गोरखमुंडी नामक शीतकालीन खरपतवार पर आक्रमण करती है तब पारम्परिक चिकित्सक इसके पौधे और इल्ली को मिलाकर काढ़ा तैयार करते हैं| इस काढ़े के प्रयोग से मौसमी रोगों की चिकित्सा की जाती हैं| यह काढ़ा दमा के रोगियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी माना जाता है|                     

धान के माहो कीट का प्रयोग छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों के पारम्परिक चिकित्सकों के बीच लोकप्रिय है| वे ब्लूमिया नामक औषधीय वनस्पति के साथ इसका प्रयोग श्वांस रोगों की चिकित्सा के लिए करते हैं| माहो के सूखे चूर्ण और ब्लूमिया की पत्तियों को विभिन्न अनुपातों में मिलाकर जलाया जाता है और फिर दमा प्रभावित व्यक्ति के कमरे में इसे फैलाया जाता है| ट्राइडेक्स यानि एकडंडी नामक खरपतवार के साथ इसका बाहरी प्रयोग पुराने जख्मो मी चिकित्सा में किया जाता है| माहो के औषधीय प्रयोग में जुटे पारम्परिक चिकित्सकों की कुछ शर्ते और सीमाएं भी है| उनका मानना है कि कृषि रसायनों के लगातार प्रयोग से माहो कीटों के औषधीय गुण प्रभावित हुए हैं| इसलिए वे उन स्थानों से माहो को एकत्र करते हैं जहां पारम्परिक खेती को रही हो बिना किसी रासायनिक आदान की सहायता से और पारम्परिक किस्म ही उग रही हो| चूंकि ऐसे स्थान अब मुश्किल से मिलते हैं इसलिए वे अब माहो का प्रयोग कम कर रहे हैं और विकल्प की तलाश में जुटे हुए हैं| 

पहले छत्तीसगढ़ में औषधीय घान बड़े पैमाने पर लगाया जाता था| उन धानो पर आक्रमण करने वाले माहो जैसे कीटों के विशेष गुण होते थे| उस समय  माहो की सहायता से बहुत से रोगों की चिकित्सा की जाती थी| आज हमारे बीच न तो वे औषधीय धान है और न ही माहो के उपयोग की जानकारी रखने वाले पारम्परिक चिकित्सक ही|      

औषधीय कीड़े-मकौडों के साथ एक बड़ी समस्या है इनका विषाक्त होना| बड़े पैमाने पर इसके उपयोग को अनुमोदित करने के पहले वैज्ञानिक इनकी पूरी पड़ताल करना चाहते हैं और आश्वस्त होने के बाद ही आगे बढना चाहते हैं| पारम्परिक चिकित्सक इस बात को पीढीयों से जानते हैं इसलिए रोगी की जीवनी शक्ति के अनुसार ही कीड़े-मकौड़े खाने की सलाह देते हैं| यह प्रयोग उनकी सख्त निगरानी में होता है और ज्यादातर मामलों में कीड़े-मकोड़ो को ऐसी वनस्पतियों के साथ दिया जाता है जिनमे विष को समाप्त करने की क्षमता होती हैं| जब उन्हें विषैले कीड़े-मकोड़ों का प्रयोग करना होता है तो वे विशेष शोधन विधियों के प्रयोग से विष को नष्ट कर देते हैं| उदाहरण के लिए आक नामक विषैली वनस्पति पर आक्रमण करने वाली इल्ली बहुत विषाक्त होती है| इसका आंतरिक प्रयोग कैंसर की जटिल अवस्था में होता है| प्रयोग से पहले पारम्परिक चिकित्सक पच्चीस प्रकार की जड़ी-बूटियों का रस निकालकर उसमे दो दिनों तक मरी हुयी इल्लियों को भिगोकर रखते हैं| उसके बाद नदी के पानी में एक दिन तक उन्हें रखा जाता है| उसके बाद ही रोगी को दिया जाता है| यह एक जटिल और काफी हद तक गोपनीय प्रक्रिया है|               

नासा द्वारा अन्तरिक्ष के लिए उपयोगी खाद्य पदार्थो कीड़े और मकौडों को भी रखा गया है| अमेरिका के कीट वैज्ञानिक डेविड ग्रेसर ने दुनिया भर के १५० ऐसे विशेषज्ञों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया है जिन्होंने एन्टोमोफैगी पर शोध कार्य प्रकाशित किये हैं| इस विश्व स्तरीय दल का उद्देश्य एन्टोमोफैगी को आधुनिक विज्ञान की एक सशक्त ताकत के रूप में स्थापित करना है| लेखक इस ग्रुप के एक भारतीय सदस्य हैं|    


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